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कविता

ले रहा हूँ होड़

योगेंद्र दत्त शर्मा


ले रहा हूँ आज भी
अपने समय से होड़,
त्रासदी यह है कि मैं
घोषित हुआ रणछोड़।

कर रहा विपरीत धारा से
सतत संघर्ष
छू नहीं पाता मुझे
उत्कर्ष या अपकर्ष
रास्ते दुर्गम भयानक
रास्तों के मोड़।

सब चले मेरे समांतर
राग हो या आग
मोह हो, विद्रोह हो
अनुरक्ति या बैराग
यह पराभव है कि
यह उपलब्धि है बेजोड़।

चख नहीं पाया छरहरी
सफलता का स्वाद
घेर भी पाया न मुझको
भुरभुरा अवसाद
मोर्चे पर किया हर पल
युद्ध ताबड़तोड़।

चुक नहीं पाया अभी तक
चेतना का दर्प
डँस नहीं पाया विकल्पों का
मचलता सर्प
उग गया अंकुर
शिलाओं की सतह को फोड़।


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